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अजन्मे बच्चे या भ्रूण का कोई अधिकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट में ASG की दलील

 


सुप्रीम कोर्ट में आज एक महिला की तरफ से दायर 26 हफ्ते के गर्भ गिराने की अनुमति को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई शुरू की। मामले की सुनवाई के दौरान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ने कहा कि हमने एम्स की रिपोर्ट देखी। याचिकाकर्ता महिला प्रसवोत्तर मनोविकृति से पीड़ित है.. वह दवा ले रही है जिसका बच्चे पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ रहा है। उन्होंने उपचार के लिए वैकल्पिक व्यवस्था निर्धारित की है ताकि बच्चे को कोई खतरा न हो और बच्चे में कोई असामान्यता का पता न चले। एम्नियोटिक द्रव आदि निकालना एक बहुत ही इन्वेसिव प्रोसिजर है।मामले की सुनवाई के दौरान सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंसाल्वेस ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय कानून में आज अजन्मे बच्चे या अजन्मे भ्रूण का कोई अधिकार नहीं है। यह यूके और कोलंबिया की अदालतों सहित पांच संवैधानिक अदालतों का निर्णय है। पिछले 12 वर्षों में सरकार की एक गाइडलाइन के माध्यम से भ्रूण हत्या की अनुमति दी गई है और इसे निखिल दातार मामले में निर्धारित किया गया था। सभी गर्भपात से भ्रूण की मृत्यु हो जाती है क्योंकि यह बच्चे के दिल को स्थिर कर देता है। इस पर सीजेआई ने कहा कि तो आप कह रहे हैं कि यदि कोई महिला 33 सप्ताह में आती है तो उसे गर्भपात की अनुमति दी जानी चाहिए.. तो बच्चे की असामान्यताएं या मां के लिए जोखिम के बावजूद.. एक सप्ताह पहले भी वह बच्चे से छुटकारा पा सकती है?

सुनवाई के दौरान एडवोकेट ने कहा कि हमें धारा 5 में जीवन की उदार और उद्देश्यपूर्ण व्याख्या करने की आवश्यकता है। इस पर सीजेआई ने कहा, आप कह रहे हैं कि फिजिकल लाइफ को खतरा नहीं है.. लेकिन हां मानसिक जीवन भी एक हिस्सा है.. लेकिन यहां यह तात्कालिकता की भावना के बारे में है कि यदि आप गर्भावस्था को समाप्त नहीं करते हैं तो इससे उसके जीवन को खतरा होगा। सीजेआई ने कहा कि आप कह रहे हैं कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए जीवन की व्याख्या करें... तो आप उसे 35वें सप्ताह में भी यह ओवरराइडिंग पावर देना चाहते हैं.. जो नहीं किया जा सकता।

आप हमें कानून पलटने को कह रहे हैं

सुनवाई के दौरान सीजेआई ने कहा कि भारत प्रतिगामी नहीं है। सीजेआई ने कहा कि देखें कि में क्या हुआ। देखें कि रो बनाम वेड मामले का क्या हुआ। यहां भारत में 2021 में विधानमंडल ने संतुलन बनाने का काम किया है। अब यह अदालतों को देखना है कि संतुलन बनाने का काम सही है या नहीं। क्या हम इन बढ़ते मामलों में ऐसे कदम उठाने की विधायिका की शक्ति से इनकार कर सकते हैं? हमें लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित विधायिका को वह शक्ति क्यों देने से इनकार करना चाहिए और क्या हम इससे अधिक कुछ कर सकते हैं? चीफ जस्टिस ने कहा कि मुझे ऐसा नहीं लगता है कि प्रत्येक लोकतंत्र के अपने अंग होते हैं और उन्हें कार्य करना चाहिए। आप हमें डब्ल्यूएचओ के बयान के आधार पर हमारे कानून को पलटने के लिए कह रहे हैं? मुझे नहीं लगता कि ऐसा किया जा सकता है।

इससे पहल सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एम्स मेडिकल बोर्ड से भ्रूण के हेल्थ पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर नई रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया गया था। इस मामले में 26 सप्ताह के हेल्दी भ्रूण के गर्भकालीन जीवन के अधिकार और प्रेगनेंट महिला को अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की पसंद के मामले में कानून और नैतिकता से जुड़ा सवाल सामने है। अदालत यह नैतिक दुविधा है कि बच्चे के जन्म का आदेश दिया जाए या मां की पसंद का सम्मान किया जाए। मामले की सुनवाई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ कर रही है।

महिला को मिली थी गर्भपात की अनुमति

यह मामला जस्टिस चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ के सामने उस समय आया जब दो जजों की पीठ ने महिला को 26-सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देने के अपने 9 अक्टूबर के आदेश को वापस लेने की केंद्र की याचिका पर खंडित फैसला सुनाया। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 9 अक्टूबर को महिला को गर्भपात कराने की अनुमति दी थी कि वह डिप्रेशन से पीड़ित है। साथ ही 'भावनात्मक, आर्थिक और मानसिक रूप से' तीसरे बच्चे का पालन-पोषण करने की स्थिति में नहीं है।

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